जिला जबलपुर विषकन्या बावड़ी बनी जल संरक्षण की मिसाल पहली बारिश में ही लबालब हुई जल की स्रोत
जिला जबलपुर मध्य प्रदेश

जिला जबलपुर विषकन्या बावड़ी बनी जल संरक्षण की मिसाल पहली बारिश में ही लबालब हुई जल की स्रोत
(पढिए राजधानी एक्सप्रेस न्यूज़ हलचल आज की सच्ची खबरें)
मध्य प्रदेश जिला जबलपुर मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की पहल पर प्रदेशभर में चलाए जा रहे जल गंगा जल संवर्धन अभियान के अंतर्गत जबलपुर की ऐतिहासिक विषकन्या बावड़ी जल स्रोतों के संरक्षण और संवर्धन का उत्कृष्ट उदाहरण बनकर उभरी है। तिलवाराघाट मार्ग पर बाजनामठ के पास स्थित यह बावड़ी अब न केवल जल संरक्षण का प्रतीक बन गई है, बल्कि स्थानीय लोगों और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र भी बन चुकी है।
5 जून को जल गंगा अभियान के तहत आयोजित बावड़ी उत्सव में जिला प्रशासन, नगर निगम, जन अभियान परिषद, सामाजिक संगठनों और स्थानीय नागरिकों के सहयोग से इस ऐतिहासिक धरोहर का जीर्णोद्धार किया गया। बावड़ी को चारों ओर से ऊंची जाली लगाकर संरक्षित किया गया है, साथ ही पौधारोपण कर इसे एक सुंदर लघु उद्यान का रूप दिया गया है।
पहली ही बारिश में यह बावड़ी पूरी तरह से जल से भर गई, जिससे इसका पुनरुद्धार सार्थक साबित हुआ है।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर बनी बावड़ी
चौकोर आकार की इस बावड़ी की चारों ओर सुंदर नक्काशीदार सीढ़ियाँ हैं, जो एक चबूतरे तक जाती हैं। यहां बैठकर लोग मछलियों और कछुओं को दाना खिलाते हैं। पास ही स्नान के लिए भी विशेष स्थान बने हुए हैं।
यही नहीं, इसके समीप स्थित *काल भैरव मंदिर और अखाड़ा आज भी स्थानीय युवाओं के व्यायाम और श्रद्धा का केंद्र हैं।
विषकन्या की रहस्यमयी कहानी भी जोड़ती है खास महत्व
सैकड़ों वर्षों पुरानी इस बावड़ी के साथ एक रोचक किंवदंती भी जुड़ी है, जो प्रेम, विरह और प्रतिशोध की एक मार्मिक कथा कहती है। कहा जाता है कि गुजरात के राजा कुमार पाल के सेनापति कृष्णदेव और एक सुंदर नर्तकी नीलमणि के प्रेम प्रसंग को लेकर राजा ने दोनों की हत्या का आदेश दे दिया था।
कृष्णदेव की मौत के बाद नीलमणि भागकर जबलपुर आई और इस बावड़ी की गुफा में छिप गई।
वह उस समय गर्भवती थी और बाद में एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम बेला रखा गया।
नीलमणि ने बेला को विषकन्या बनाने की योजना बनाई और धीरे-धीरे सांपों का विष पिलाकर उसे तैयार किया।
जब बेला युवा हुई, तो वह राजा कुमार पाल के संपर्क में आई और उसके संपर्क में आते ही विष के प्रभाव से उसकी मृत्यु हो गई।
इसके बाद लोग बेला से भयभीत होने लगे और उसे विषकन्या कहा जाने लगा। चूंकि वह अपनी मां के साथ इसी बावड़ी के पास की गुफा में रहती थी, इसलिए यह स्थान विषकन्या बावड़ी कहलाया।
संरक्षण के साथ संवर्धन का प्रतीक बनी बावड़ी
आज यह बावड़ी न केवल अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए, बल्कि जल संरक्षण और सांस्कृतिक विरासत के पुनरुद्धार के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण बन गई है।
मुख्यमंत्री की मंशा के अनुरूप यह स्थान अभियान का प्रेरणास्त्रोत बन रहा है।