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पुज्य शास्त्री जी महाराज ने पंचम दिवस की कथा मे कहा जीवन में हर चुनौती को पार करने के लिए स्वयं सक्षम होना चाहिए

कटनी जिला मध्य प्रदेश

पुज्य शास्त्री जी महाराज ने पंचम दिवस की कथा मे कहा जीवन में हर चुनौती को पार करने के लिए स्वयं सक्षम होना चाहिए

(पढिए जिला कटनी ब्यूरो चीफ ज्योति तिवारी की खास खबर)

मध्य प्रदेश जिला कटनी में पूज्य सचिन शास्त्री जी महाराज ने कटनी मे चल रही पंचम दिवस की कथा मे कहा जीवन में हर चुनौती को पार करने और विजयी होने के लिए अपनी स्वयं की दिव्य क्षमता में विश्वास रखें। जीवन में सक्रियता, चैतन्यता और उद्यमिता रहे ..! उपनिषद कहते हैं –

चरैवेति, चरैवेति …” अर्थात् चलते रहो, चलते रहो। चलते रहने का नाम जीवन है। हर स्थिति और परिस्थिति में आगे ही आगे बढ़ते रहने का नाम जीवन है।

जीवन में निराश और हताश होकर लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। जो हमारा समय निकल गया, उसकी चिन्ता छोड़ें।

जो जीवन शेष बचा है उसके बारे में विचार करें और स्वयं को संभालें।

इस बचे हुए जीवन की धारा को धीरे-धीरे भौतिक जगत से अध्यात्म में लाने की आवश्यकता है।

हममें से बहुत लोग शायद कर्म या भाग्य को न भी मानें, पर हम सब का अधिकार केवल कर्म करना, सदाचार और अनुग्रह करने का ही है। शुभ कर्म करना भी अपने आप में एक तृप्ति है।

जब तक हम सोते रहेंगे तो हमारा भाग्य भी सोता रहता है और जब हम उठ कर चल पड़ते हैं, तो हमारा भाग्य भी हमारे साथ चलता है।

भाग्य को केवल आलसी ही कोसा करते हैं और पुरुषार्थी अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करते हैं। पुरुषार्थी आलस्यरहित रहना ठीक समझता है।

साधारणतया जिसे हम भाग्य या प्रारब्ध कहते हैं, वह हमारे पूर्व-संचित कर्म ही होते हैं। श्रेष्ठ पुरुष दौड़ लगाते हैं,

आगे चलते हैं। जो दौड़ता है उसे लक्ष्य मिलने की सम्भावना अधिक होती है।

घर के अन्दर पलंग पर पड़े-पड़े हम केवल कमरों को ही देख सकते हैं। जो दौड़ रहा है, वह स्वयं को भी देख पाता है और दूसरों को भी देख पाता है।

शेर भी जब तक अपने भोजन के लिए स्वयं प्रयास नहीं करता, अपने आप उसके मुँह में कोई पशु प्रवेश नहीं करता।

जो ईश्वर पर विश्वास रख कर कर्म और पुरुषार्थ करते हैं, उन्हें ही सफलता प्राप्त होती है।

संसार का बनना-बिगड़ना ईश्वर के ही आधीन है।

ईश्वर का हर काम नियमानुसार है।

ईश्वर का सानिध्य पाकर, पुरुषार्थी बन कर, कर्म करते हुए हम सुखी रह सकते हैं। यह ‘कर युग’ यानी ‘कर्म युग’ है। इसलिए इस हाथ दें और उस हाथ लें …।

समिधा, हविष्यान्न व अन्यान्य पदार्थ अग्नि के संसर्ग में भस्मीभूत हो जाते हैं; क्योंकि दाहकता अग्नि का स्वाभाविक गुण है।

तथैव अहंकार धर्म-आचरण द्वारा उपार्जित पुण्यों और समस्त सदगुणों को आवृत्त कर हमें सामर्थ्यहीन बनाता है !

अतः निराभिमानी रहें ! गहराई से सोचें तो यह सारा विश्व दो बातों से ही संचालित होता दिखाई दे रहा है।

एक अहंकार और दूसरा विवेक से। इंसान जो कुछ भी कर रहा है, वह इन दो स्रोतों से ही प्रभावित है।

अहंकार शरीर का प्रतिनिधित्व करता है और विवेक आत्म-तत्व का।

जब इन्सान अहंकार के प्रभाव में होता है तो फिर विवाद और टकराव वाली स्थिति पैदा होती है और जब व्यक्ति विवेक से कार्य लेता है तो स्थिति सामान्य हो जाती है।

अहंकार और विवेक दोनों इन्सान के अन्दर ही हैं,
जबकि दोनों तत्वों के उद्देश्य एक-दूसरे के विपरीत हैं।

जहाँ अहंकार बढ़ता है, वहाँ विवेक पृष्ठभूमि में चला जाता है। इन दोनों में संतुलन बनाकर चलना ही सबसे कठिन कार्य है।

शरीर के उद्देश्य, अर्थात् भौतिक समृद्धियों की प्राप्ति का मूल प्रेरणास्रोत अहंकार ही होता है। जब अहंकार बढ़ता है तो विवेक उसी अनुपात में घटता है।

अतः उसी इन्सान का जीवन सफल होता है, जो अपने अहंकार पर नियंत्रण पाकर अपने विवेक से कार्य करता है।

जब अहंकार नियंत्रण में होता है तो इंसान विनम्रता के साथ अपना कार्य करता हुआ

अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चला जाता है। सत्य, संयम, शील और विनम्रता विवेकी पुरुष के ही गुण हैं।

क्षमा माँगना और क्षमा करना दोनों अहंकार रहित विवेकी पुरुष के गुण हैं। साधारण इन्सान की दृष्टि में यह हार-जीत का विषय हो सकता है।

अतः निराभिमानी रहें, क्योंकि अपने अज्ञान-जन्य अहंकार से मुक्त होना ही सच्ची विजय है

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